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लेखक का प्रतिवेदन

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  • जिंदगी यूँ भी बीत जाती है के पता ही नहीं लगता | आज भी लगता है जैसे कल की बात हो जब बाल सुलभ अठखेलियाँ करते हुए हम भाई बहन बड़े हो रहे थे | उस दिन तुतला कर बोलने वाला बालक आज आपके हुजुर में है | बात उन दिनों की है जब में मारवाड़ी कमर्शिअल हाई स्कूल में पढता था हिंदी और अग्रेजी विषयों में उसी दिन से रूचि रही १९६७ में स्कूल पास करकर जब कोलेज जाने लगा तो कोर्से की किताबों के अलावा हिंदी साहित्य के अन्य प्रकाशन पढ़ने का शौक चर्राया. इसी दरमियाँ दोस्तों में कुछ टुटा फूटा लिख कर सुनाने लगा. कभी वाहवाही भी मिली तो कभी दोस्तों ने मजाक का पात्र भी बनाया| १९७३ में शादी हो गई | १९८० तक आते आते परिवार में दो पुत्रियां एक पुत्र का जन्म हुआ | लेखन में रूचि तो रही पर शायद वो गति कम हो गयी | लेखन कार्य चलता रहा ये सोच के कभी मौका होगा तब इनका संपादन करेंगे मन की बात तो लिख ही ली जाए |

  • मेरे लेखन में मेरी माताजी का बहुत सम्बल मिलता रहा| उन्हें संतो को सुनना बहुत अच्छा लगता था| वो संत कथा सुन के आती थी उसके सारांश हम बच्चों को सुनाती थी| उस दौरान मैं अपने विवेक से जो भी मेरे मन में आता था लिख लेता था | शायद उसकी छाप आपको मेरी कविताओं में कहीं ना कहीं जरुर मिलेगी| १९८७ में उनके निधन के बाद जवाबदारियाँ बढ़ गयी |

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  • पिताजी की तबियत भी खराब चलती थी सो १९९३ तक लेखन कार्य बिलकुल बंद रहा| मेरी रचनाये बंद पन्नों में पड़ी रही| १९९८ में मेरी बड़ी लड़की की शादी हो गयी फिर छोटी लड़की और लड़के की शादी हो गयी| जिंदगी की गाडी फिर से अपने ढर्रे पर चलने लगी| एक बार फिर लेखनी को उठाया | इस बार मेरी लेखनी का प्रेरणा स्त्रोत्र मेरा अपना परिवार था|

  • कविता स्वांत सुखाय लिखना और बात है| सामजिक तौर पर लिखना और उसे समाज में प्रसारित करने में हमेशा अपने को परबस महसूस करता रहा| इसीलिए मैंने अपने लिए लिखा :-

  • दम नहीं आदम में,
    आदि से अंत पर बस नहीं उसका |
    नहीं चली जो देव और अवतारों की,
    होनी पर बस है किसका ||

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  • “अरुणोदय” से अस्ताचल तक,
    दिन भर जलना और तपना |
    जीवन देना शाम ढाले ढल जाना,
    ये ही तो है बस काम उसका ||

    पहुँच के बादलों के धाम,
    हो जाता है उसका भी चक्र जाम |
    देख के ये ही सब कुछ, इस नाचीज़ ने भी
    रखा है “परबस” अपना उपनाम ||

  • इतने महान हमारे कवी गण जिनको पढ़ पढ़ कर हम बड़े हुए उनकी इतनी स्वच्छ और सुन्दर शैली, कथानक, के आगे मैं हिम्मत ही नहीं कर पाया के मेरे इस कविता लेखन को वाकई में कविता नाम दूं| मेरे अंतर्मन में कवी की कल्पना छवि शायद बहुत अलग बहुत विशाल बहुत ऊँची थी | कई कवी सम्मेलनों में उन्हें रूबरू सुनने का मौका भी मिला| आज भी हिम्मत तो की है पर मैं खुद भी नहीं जनता क्या है मेरी कविताओं का स्तर |

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  • एक दिन अचानक एक ऐसा प्रसंग हुआ जिसने मुझे ऐसी प्रेरणा दी के मैंने सोचा जैसा भी स्तर हो मेरा मुझे लिखना है| हुआ यूँ के :-

  • मैंने किसी बच्चे को कह दिया के तुम तुलसी कृत रामायण पढ़ो

  • उसका जवाब था वो हिंदी में कहाँ है|

  • आम आदमी के नज़रिए से शायद उसका कहना ठीक ही था| पर मन में कहीं लग रहा था के क्या वो हिंदी का ही एक रूप नहीं था | बहुत सोचा पर प्रश्न तो मैं अपना ही हल नहीं कर पाया|

  • उस दिन मन में एक निश्चय किया की एक सरल हिंदी भाषा जो आज के परिपेक्ष में आम आदमी आने वाली पीढ़ी आसानी से पढ़ सके ऐसा लिखने का मुझे प्रयास करना चाहिए | और में एक नए संकल्प के साथ जब भी अपने संसार और व्यापार से फुर्सत मिलती थी लिखने लगा | मेरी पुरानी रचनाओं को संपादन किया |

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  • जीवन के इस पड़ाव पर आते आते मैंने
    मेरे बचपन और मेरी जवानी के कुछ सफे
    इत्मीनान से, करीने से संजोकर हैं रखे
    हैं उनमे कुछ ऐसे दरवाजे भी
    जिनको नहीं खोलता मैं कभी
    अनुभव् हैं उनमे मेरे कुछ कड़वे , कुछ मीठे

    जनम से जवानी तक, जवानी से अबतक
    खुद को, हिस्सों हिस्सों बाँट लिया मैंने
    कुछ मैंने लिया, कुछ मैंने दिया
    मैं कहीं जुडा, तो मैं कहीं मुड़ा
    अब नहीं बचा कुछ भी, टुकड़ों में बंटने को
    शेष बची जो ये पूंजी, इन पन्नों पर
    मेरे वारिस की खातिर, संभाल संजोकर रख्खी है
    कभी न खोलना, उन हिस्सों को

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  • बंद रखे हैं जो मैंने, नहीं है उनमे कुछ भी
    आने वाली पीढ़ी के लिए
    सिलसिला दर्दों का, आगे न बढे इसलिए
    कहता हूँ बंद ही रहने देना
    मैंने भोगा हैं इनको, इनको न तकना

    रखी है संग अपने
    थोड़ी सी आशा , थोड़ी हताशा
    थोडा सा कर्म, थोडा सा धर्म
    चल रहा है जो, मेरे साथ
    थोडा सा जो, चलना है बाकी
    जिंदगी के राहों पर “परबस”
    उनपर खुश खुश, मेरे मन माफिक
    मुझको चलने को

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  • मेरी पूरी कोशिश रही है की मैं हर विषय पर लिखूं इस प्रयास में मैं कहाँ तक सफल हुआ ये तो मुझे आपसे ही मालूम हो सकेगा . अगर आपकी हौसला अफजाई मिली तो आगे भी मेरा प्रयास रहेगा के मैं और भी मेहनत से आपकी आशाओं पर खरा उतर सकूं

  • मेरे इस प्रथम प्रयास में कोई भी त्रुटि रह गयी हो तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ . और अपनी त्रुटियों को जानने के बाद उन्हें सुधारने के लिए प्रति बध्ध हूँ.

  • इस में लिखी गयी कोई भी बात किसी व्यक्ति विशेष जाती या वर्ग का उपहास या बेइज्जत करने के लिए नही लिखी गयी हैं. ऐतिहासिक बातों का समावेश भी केवल संदार्भानुकुल ही लिया गया है इसमें मेरी कोशिश ये ही रही है के जहाँ तक हो सके कविता अपने मकसद के अंजाम तक याने के सन्देश तक पहुंचे.

  • मैं कोई कवी नहीं हूँ. एक मनोभाव जागा मन में उसको मैंने दिल से प्रस्तुत करने की ईमानदार कोशिश की है ये आप पर निर्भर है के मैं पास होता हूँ या फ़ैल. मेरी कोशिश रही है के रचनाओं में आम बोलचाल की सरल भाषा का ही प्रयोग किया जाए चाहे वो हिंदी हो या उर्दू शब्द हों.

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  • कुछ सफर चल चुका कुछ चलना है बाकी
    पी चुका सारा गरल अमृत अभी है बाकी
    कलम से क्या क्या लिख पाता “परबस”
    दिल में दहकती ढेरों बातें है बाकी

    “दिल में उफनते अरमान मुश्किल में है
    लफ्जों में कह देना मुश्किल शै है
    कुछ खट्टे कुछ मीठे बंद लिखे है जो मैंने
    कुछ दिल से है कुछ दिल से है”.

 

 

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MY Philosophy

 

अँधेरे मिट ही जायेंगे, यादों के चरागों से
येही सोच के उम्मीद की लौ , जगा के लाया हूँ
बदनसीबी में , हिना भी रंग अपना सजाती नहीं
मैं खून से अपने, मेहंदी सजा के लाया हूँ

 

 

 

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समाज के बारे में मेरा नजरिया:-

दुनिया का बढ़ता विस्तार
जन्दगी की बढती जरूरतें का प्रकार
नोन तेल लकड़ी का जुगाड के लिए
बीतती जवानी का गुबार देखता हूँ

बढ़ते परिवार के लिए,
भाई बांधवों में प्यार के लिए
उनके एक छत्र निबाह के लिए
अकड़ती हड्डियों में, एक बुड्ढा बीमार देखता हूँ.

 

 

 

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लुप्त होती संवेदनाओं के सन्दर्भ में :-

बिकता है खून बिकता है अंग, बिकता तन है
बिकता है इमान यहाँ बिकते हैं नर नारी इंसान यहाँ
भुखमरी के मारों का बचा ये ही जतन है
भूख दर्द के मारे मरते हैं रोज़ इंसान यहाँ
भूख दर्द के इन मारों का दर्द मिटाना होगा
शायद एक बार फिर के जिंदगी को संजाना होगा

 

 

 

 

 

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युग की त्रासदी के सन्दर्भ में – भगवान

नज़र में उस त्रिलोकी के शायद
कलयुग में मानव ने अबतक “परबस”
सबकुछ विधि के लेखो के अनूरूप किया है
धर्म भी शायद युग की मर्यादाओं के अनूरूप जिया है
असुरी क्रीडाएं भी शायद विधिना की
रेखांकित मर्यादाओं से नहीं अधिकतम
नहीं तो क्यों नहीं लेते वे अबतक जनम

 

 

 

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उनके ना जन्म लेने का कारण

फिर क्यों आयेंगे राम यहाँ, जन के जंजाल में फंसकर
जनता, राजमर्यादा और वचनों के जाल में फंसकर
त्रेता में जब आये राम तब वे छले गए थे
राजतिलक का मुहूर्त था और वे वन को चले गए थे

राम की पीड़ा की पराकाष्ठा

“परबस” एक पिता की पीड़ा को कहाँ हम जाने
हठ, जन का ह्रदयप्रिया को तजवा कर ही माने
पुत्र जनम के आनंद से भी वे वंचित रखे गए थे
त्रेता में जब आये राम तब वे छले गए थे

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आपके हुजुर में चंद शेर

किससे करते दिल की बात वो अपने
चोट ने जमाने की उनको मौन ही बना दिया
मरहम तो हम थे उनके नासूर के “परबस”
शिकवा जमाने से और तनहा हमे बना दिया

मैं तेरी हंसी का तलबगार हूँ
रोता हुआ चेहरा तेरा सुहाता नहीं
इबादत को ईद का चाँद मेरा मसीहा है
पर तेरे चाँद से चेहरे का ईद कों ही आना मुझे भाता नहीं

सब कुछ लुटा के होश में आने की जरुरत क्या है
होश की सोचो , जोश में आने की जरुरत क्या हैं
गर मयस्सर होती सारी खुशिया मैखाने में
तो शहर के शहर बसाने की जरुरत क्या हैं

 

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आज की युवा पीढ़ी के नाम :-

रिश्तों से भागा था वो प्यार का रिश्ता ना समझ पाया
पिसते रहना मंज़ूर था उसको पर कबूल ना कर पाया
जिद में प्यार के , दावे नहीं दावानल बना रहा था
सागर की लहरों की मानिंद जज्बातों के महल बना रहा था

यूँ तो पुरवाई ठंडी ठंडी चलती रही सारी रात
ना चैन मिला ना सुकून आया सारी रात
चन्दा अपनी चांदनी संग चला मेरे साथ सारी रात
देख के उस जोड़े को तेरी याद बहुत आई सारी रात

देख देख टिमटिमाते तारों कों, बिताई सारी रात
उसमे जो एक तारा टुटा, तो व्याकुल रहा मन सारी रात
यूँ तो नयन मूंदे जाते रहे परेशान रहा सारी रात
तेरी सलामती की दुआ मांगते रहे सारी रात

 

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एक सोच :-

कोई पत्थर मेरी राह का रोड़ा नही ।
बिछ कर राह में, तेज चलने को देता गति वही
जमाया गया जो ठीक से तो हर पत्थर राह करता सरल
पत्थरों सम स्थिर रहो तुम विश्वास में , मैं भी रहूँ अचल

 

 

 

 

 

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The End